Wednesday, April 20, 2011

प्रतिबिम्ब

करीब 9 महीने होगये जब मैंने कुछ लिखा था, दिन ऐसे बीत रहे थे मानों काटने को दौड़ रहे हो,कुछ ठहराव सा आ गया था जीवन में,शायद दूसरों के साथ अंधी दौड़ में शामिल हो गया था किसी अनजाने मोड़ की तरफ इस आशा के  साथ की जो समय मैं पन्नों को भरने में नष्ट करता हूँ अगर वाही समय दूसरों क साथ दौड़ लगाऊं तोह शायद कुछ भौतिक प्राप्ति हो जाए और लोग मुझे निठल्ला और खुद की दुनिया में रहने वाला एक और पागल की संज्ञा न देदें| और मैंने भी रख दी कलम और रख दिए वो अधूरे लेखों क पन्ने अलमारी की सबसे उपरी ताख पर और शुरू कर दी दौड़........................... पर आज जब इतने दिनों के बाद अचानक ही कलम की स्याही उँगलियों पर लग गयी तोह अचानक ही उन अधूरे पन्नों की तरफ मन आकर्षित हो गया मानों कोई सुस्मृति हो किसी बिछड़े की, जैसे तैसे कुर्सी लगा क ताख पे से उन पन्नों को उतर कर धुल झाडी  तो एक लिखी कविता अनायास ही उभर आई जो कुछ ऐसी थी.........

प्रतिबिम्ब हूँ मैं,
निश्चल,निश्छल,पावन,चंचल
बहती सरिता से भिन्न हु मैं
प्रतिबिम्ब हूँ मैं

जल त्रिश्नित, निर्बल,निर्भय
स्वछंद विचरता मृग हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं

सदाचारी,दृढ संज्ञेय,तपी
सर्वदा अपकर्ष हिन् हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं

आग्नेय, शिथिल,सम-सोम आलोकित
नभ एजस्वी उल्कापिंड हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं

श्वेत,शांत,उज्जवल धवल
प्रेम से पिघलता हिम हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं

म्मार्मिक,करुण,भयावह,सुन्दर
रहस्यमयी तिमिर हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं

पृथ्वी,अनल,आकाश,वारि
वायु संयुक्त ऐन्द्रिय हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं


धन्यवाद
मैं दिव्यान्ग्शु |

Saturday, July 31, 2010

चीखें

यह शीर्षक आप को शायद उतना अच्छा न लगे पर यह मेरी लिखी हुई सभी कविताओं में से सबसे प्रिय है,यहाँ चीखें दर्शाती हैं वो आवाज जो हर उस भारतीय की चीखों से जुडी है जिसका शोषण हो रहा है, जिसे दबाया जा रहा है और हम उस मूक दर्शक के समान या तो खड़े होके तमाशा देखते हैं या फिर वहाँ से मुह मोड़ के चले जाते हैं हम में से ऐसा कोई नहीं जो हो रहे इन अत्याचारों या फिर इस अराजकता के प्रति आवाज उठाये | और ऐसा नहीं के हमारे पास बहाने नहीं है बहाने भी हैं किसी के साथ बुरा होता है तोह हम उसकी टिका-टिप्पणी भी करने से बाज नहीं आते शायद आज इसी वजह से भ्रस्टाचार,अराजकता और हिंसा अपने चरम पे है | 




दूर से आती हैं चीखें 
   पर चारो तरफ है सन्नाटा 
दशदिश में गूंजती हैं चीखें
   पर चारों तरफ है सन्नाटा |


मैं हैरान हूँ परेशान हूँ 
किसकी हैं ये चीखें
मन है विचलित मानो जाने अनजाने 
परिचित है वो इन चीखों से
पर वो चुप है
क्योंकि चारों तरफ है सन्नाटा |


ह्रदय कहता है की 
जलाओ एक ऐसा दीपक जो 
मिटा दे इस अन्धकार को 
पर मैं भयभीत हूँ 
क्योंकि चारों तरफ हैं सन्नाटा |


अंतरात्मा कहती है की
फिर छेड़ दू एक युद्ध 
पर मन है विचलित 
क्योंकि चारों तरफ है सन्नाटा |


अब नहीं पुकारती चीखें 
शायद मानवता की मृत्यु पर 
शोक मना रही हैं
क्योंकि चारों तरफ है सन्नाटा | 

धन्यवाद
मैं दिव्यान्ग्शु |

Thursday, July 29, 2010

और मैं स्तब्ध रह गया |

यह कविता है उनके लिए जो परिस्थितियों का शिकार  बनने की दुहाई  दे कर स्वयं को भ्रष्टाचार  एवं अनैतिकता के चूल्हे में झोंक देते हैं और हमारे देश में ऊँचे स्थानों में बैठ कर अपनी अराजकता और स्वार्थ पूर्ति के लिए न जाने कितने जरूरतमंद और आम आदमी का शोषण करते हैं, अब समय आ गया है उन्हें दर्पण दिखाने का और उन्हें एहसास कराने का की जो वो कर रहे हैं वो गलत है, मेरी इस कविता के माध्यम से मैंने उन्हें शीशे में खुद को दिखाने की चेष्टा की है


आज अचानक मार्ग में,
जब मैं विचर रहा था,
भ्रस्टाचार से विभूषित,
लोभ से आकर्षित,
दंभ से मादित,
नैतिकता से परे,
मानवता से दूर,
दया ममता को त्याग कर,
कलुषित मन को कपड़ों में छिपा कर |

तभी तामस की निर्विघ्न  शांत छाया से
स्वयं के अंतर-मन को प्रत्यक्ष देखा
निर्बल,असहाय,शोषित,बेड़ियों से जकड़ा हुआ
कुरूप,अशांत,प्रश्नों से चिन्हित,

वह मेरा ही अंतर स्वरुप था,
पर मैं उससे कोसों दूर था,

वह नग्न सत्य
और मैं भ्रष्ट मिथ्या
वह परिस्थितियों के द्वन्द युद्ध में विजयी
परन्तु घायल शूरवीर
मैं विद्रोही हारा हुआ

वह चेतन ६थ वह प्रेमी था
वह नैतिकता  से वशीभूत  था

उसे देखकर मैं बारम्बार लज्जित होता रहा
और वह दर्दनाक पीड़ा में भी
आल्हादित शंख्ध्व्नी  करता हुआ
बाधा जा रहा था, अडिग...................

वह बढ़ता रहा
चलता रहा
और अंत में आत्महत्या कर ली
भ्रस्टाचार के कूप में

........................................और मैं स्तब्ध रह गया |

समर्पण


आप में से कुछ लोग मुझसे परिचित होंगे, और जो मुझे नहीं जानते वो मुझे मेरी कविताओं और अन्य कृतियों से जानने और समझने लगेंगे ऐसी मैं आशा करता हु | हिंदी में ब्लॉग्गिंग को क्या कहते हैं इसका ज्ञान मुझे अभी तक नहीं, ना ही मुझे अभी तक इसकी जानकारी है पर हाँ मैं इतना जरुर जानता हु की मुझे लिखना पसंद है और यही एक माध्यम है जिससे मैं स्वयं को भलीभांति व्यक्त कर पाता हु, अंग्रेजी में ब्लॉग्गिंग का तजरुबा भी मुझे कुछ ख़ासा नहीं है पर हाँ इस बात से मैं बहुत ही ख़ुशी  महसूस कर रहा हु की मैं अपनी प्रिय भाषा जो की सर्वदा हिंदी ही रही है उसमे स्वयं को  आप सभी के सामने व्यक्त करूँगा |

इस ब्लॉग के प्रेंरना श्रोत कुछ लोग हैं जिनके नाम लिए बगैर मैं अगर अपनी बात ख़तम कर दू तो यह बहुत ही गलत होगा,सबसे पहले मैं शुक्रिया कहना चाहूँगा नंदिता का जिसने हर उस छोटी बहन की तरह मांग की थी मुझसे उस के जन्म दिन पर एक कविता की पर मैं उसे भेंट सवरूप यह ब्लॉग और इस पर भविष्य में प्रेषित होने वाली कविताओं और लेखों को उसे समर्पित करता हु, यह ब्लॉग द्योतक है मेरी क्रितार्तथा का तनु दीदी को जिन्होंने मुझे अपनी कविताओं को इस ब्लॉग पर ले आने के लिए मार्गदर्शन किया और मेरी बहुत अच्छी मित्र 
मनीषा को जो सर्वथा मुझे और भी अच्छा लिखने की प्रेरणा देती है और मेरे लिखे हुए बुरे से बुरे लेख को भी सराहती है, मैं कृतार्थ हु   श्रीमती निधि गर्ग के प्रति जिन्होंने मेरी प्रथम कविता को सराहा था और जिनके आशीर्वाद से मैं आज भी लिख रहा हु |

आप सभी को मेरा धन्यवाद|
मैं   दिव्यान्ग्शु