करीब 9 महीने होगये जब मैंने कुछ लिखा था, दिन ऐसे बीत रहे थे मानों काटने को दौड़ रहे हो,कुछ ठहराव सा आ गया था जीवन में,शायद दूसरों के साथ अंधी दौड़ में शामिल हो गया था किसी अनजाने मोड़ की तरफ इस आशा के साथ की जो समय मैं पन्नों को भरने में नष्ट करता हूँ अगर वाही समय दूसरों क साथ दौड़ लगाऊं तोह शायद कुछ भौतिक प्राप्ति हो जाए और लोग मुझे निठल्ला और खुद की दुनिया में रहने वाला एक और पागल की संज्ञा न देदें| और मैंने भी रख दी कलम और रख दिए वो अधूरे लेखों क पन्ने अलमारी की सबसे उपरी ताख पर और शुरू कर दी दौड़........................... पर आज जब इतने दिनों के बाद अचानक ही कलम की स्याही उँगलियों पर लग गयी तोह अचानक ही उन अधूरे पन्नों की तरफ मन आकर्षित हो गया मानों कोई सुस्मृति हो किसी बिछड़े की, जैसे तैसे कुर्सी लगा क ताख पे से उन पन्नों को उतर कर धुल झाडी तो एक लिखी कविता अनायास ही उभर आई जो कुछ ऐसी थी.........
प्रतिबिम्ब हूँ मैं,
निश्चल,निश्छल,पावन,चंचल
बहती सरिता से भिन्न हु मैं
प्रतिबिम्ब हूँ मैं
जल त्रिश्नित, निर्बल,निर्भय
स्वछंद विचरता मृग हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं
सदाचारी,दृढ संज्ञेय,तपी
सर्वदा अपकर्ष हिन् हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं
आग्नेय, शिथिल,सम-सोम आलोकित
नभ एजस्वी उल्कापिंड हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं
श्वेत,शांत,उज्जवल धवल
प्रेम से पिघलता हिम हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं
म्मार्मिक,करुण,भयावह,सुन्दर
रहस्यमयी तिमिर हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं
पृथ्वी,अनल,आकाश,वारि
वायु संयुक्त ऐन्द्रिय हु मैं
प्रतिबिम्ब हु मैं
धन्यवाद
मैं दिव्यान्ग्शु |
मैं दिव्यान्ग्शु |